ध्वनि किसे कहते है ध्वनि की उत्पत्ति, प्रकृति और संचरण

नमस्कार दोस्तों, आज हम ध्वनि क्या है ध्वनि की उत्पत्ति, प्रकृति और संचरण की समस्त जानकारी पड़ेगें। यदि आप ध्वनि की जानकारी जानना चाहते हैं तो इस आर्टिकल को पूरा जरूर पढ़िए।

ध्वनि क्या है

अपने कान से हम जो कुछ सुनते हैं उसे ध्वनि कहते हैं। दैनिक जीवन में हम विभिन्न प्रकार की ध्वनियां सुनते हैं। लोगों को बोलते या चिल्लाते, बच्चों को रोते, हंसते सुनते हैं। 

यह सभी ध्वनियां कैसे उत्पन्न होती है? ध्वनियां हमें कैसे सुनाई देती है? क्या ध्वनि के संचरण के लिए किसी माध्यम की आवश्यकता होती है? इत्यादि जैसे प्रश्नों का उत्तर आपको इस लेख को पढ़ने के बाद मिल जाएगा।

ध्वनि की उत्पत्ति

ध्वनि कई विधियों द्वारा उत्पन्न की जा सकती है, जैसे ताली बजाकर, बोलकर, टेबल को ठोककर इत्यादि। परंतु, ध्वनि तब तक उत्पन्न नहीं हो सकती जब तक किसी वस्तु में कंपन ना हो। 

कंपन का अर्थ है वस्तु का तेजी से आगे-पीछे या ऊपर-नीचे होना। साइकिल की घंटी बजा कर उसे हल्के से छूने पर उसके कांपने का अनुभव होता है। जब कंपन बंद हो जाता है तब ध्वनि समाप्त हो जाती है। 

इससे पता चलता है कि जब कोई वस्तु कंपित होती है तब इसके कंपन से ही ध्वनि उत्पन्न होती है। कंपन नहीं होने पर ध्वनि उत्पन्न नहीं होती।

ध्वनि की प्रकृति

ध्वनि ऊर्जा का एक रूप है जिसके कान में पड़ने से सुनने की संवेदना होती है। ध्वनि शब्द दो अर्थों में प्रयुक्त होता है - 

  1. संवेदना और
  2. बाह्य विक्षोभ 

जब हम कहते हैं कि ध्वनि सुनते हैं तो हम संवेदना का उल्लेख करते हैं। किंतु जब हम कहते हैं कि गैस की अपेक्षा ठोस में ध्वनि तेज चलती है तो हम बाह्य विक्षोभ का जिक्र करते हैं।

ध्वनि का संचरण

ध्वनि के संचरण के लिए माध्यम की आवश्यकता होती है। ध्वनि स्रोत से निकलकर हमारे कान तक इसलिए पहुंचती है क्योंकि बीच में हवा का माध्यम होता है। यदि बीच में हवा नहीं होती तो कान तक ध्वनि नहीं पहुंचती।

ध्वनि सिर्फ हवा द्वारा ही संचारित नहीं होती, बल्कि अन्य गैस, द्रव तथा ठोस भी ध्वनि को संचरित करते हैं। चंद्रमा पर ध्वनि नहीं सुनी जा सकती।

इसका कारण यह है कि चंद्रमा पर कोई वायुमंडल नहीं है और एक स्थान से दूसरे स्थान तक चलने के लिए ध्वनि को किसी माध्यम की आवश्यकता होती है। क्योंकि चंद्रमा पर ध्वनि नहीं चल सकती है। अतः ध्वनि वहां नहीं सुनी जा सकती है।

विभिन्न ध्वनियां हमें भिन्न-भिन्न क्यों प्रतीत होती हैं

हम प्रतिदिन विभिन्न प्रकार की ध्वनियों को सुनते हैं। सितार या बांसुरी की ध्वनि, तबला या वायलिन की ध्वनि से भिन्न होती है।

मंदिर में बजने वाली घंटी वहीं खड़े व्यक्ति को खराब लगती है, परंतु मंदिर से कुछ दूरी पर स्थित व्यक्ति को यह मधुर प्रतीत होती है। हमें ध्वनि सुनने में कैसी लगती है? यह बहुत सी बातों पर निर्भर करता है जो निम्नलिखित है।

1. तारत्व 

तारत्व ध्वनि का वह गुण है जिससे ध्वनि का मोटा या पतला होना समझा जाता है। पुरुषों की आवाज से स्त्रियों की आवाज पतली, अर्थात उच्च तारत्व की होती है। 

ध्वनि का तारत्व उसकी आवृति पर निर्भर करता है। अधिक तारत्व वाली ध्वनि की आवृत्ति अधिक होती है और कम तारत्व वाली ध्वनि की आवृत्ति कम होती है। 

बच्चों की आवाज पतली, अर्थात उच्च तारत्व वाली होती है। किसी ध्वनि के तारत्व की माप संभव नहीं है।

2. प्रबलता

ध्वनि की प्रबलता इसका वह गुण है जिसके कारण यह कान को धीमी अथवा तेज सुनाई पड़ती है। वस्तुतः, ध्वनि की प्रबलता कान में उत्पन्न एक संवेदना है जिसके आधार पर ध्वनि को तेज अथवा धीमी कहते हैं। 

ध्वनि की प्रबलता ध्वनि के आयाम से जानी जा सकती है। चुंकि ध्वनि ऊर्जा से संबंधित है, इसलिए प्रबल ध्वनि में ऊर्जा अधिक होती है और मधुर ध्वनि में कम। 

ध्वनि जब किसी ध्वनि स्रोत से निकलती है तब तरंग के रूप में तो फैल ही जाती है और इसके साथ-साथ स्रोत से दूर होने पर उसकी प्रबलता तथा आयाम दोनों ही घटते जाते हैं।

3. तीव्रता

किसी एकांक क्षेत्रफल से एक सेकंड में गुजरने वाली ध्वनि ऊर्जा को ध्वनि की तीव्रता कहते हैं। बहुत बार हम प्रबलता तथा तीव्रता शब्दों को समान अर्थ में लेते हैं, लेकिन यह सही नहीं है। 

प्रबलता ध्वनि के लिए कानों की संवेदनशीलता की माप है। जबकि तीव्रता एकांक क्षेत्रफल से एक सेकंड में गुजरने वाली ऊर्जा है। 

4. गुणता

सुस्वर ध्वनि की गुणत्ता उसका वह गुण है जिससे समान तारत्व एवं समान तीव्रता के विभिन्न ध्वनियों के बीच के अंतर का बोध होता है। 

एक विशेष आवृति की ध्वनि को टोन कहा जाता है। सामान्य रूप से विभिन्न टोनों से उत्पन्न ध्वनि को स्वर कहते हैं और यह कर्णप्रिय या मधुर होती है जबकि शोर या कोलाहल कटु अर्थात सुनने में अप्रिय होती है।

श्रव्य-परास

सामान्य मनुष्य को ध्वनि की संवेदना, कंपन की आवृत्ति के एक निश्चित परास के बीच ही होती है। यह परास 20 हर्ट्ज से 20,000 हर्ट्ज़ के बीच रहता है जिसे श्रव्य-परास अथवा श्रव्यता की सीमा कहा जाता है।

आवृत्ति की न्यूनतम सीमा, अर्थात 20 Hz से कम आवृत्ति के कंपनो से उत्पन्न तरंगे अश्रव्य होती है, जिन्हें अवश्रव्य कहा जाता है। 

कुछ जानवर जैसे हाथी, व्हेल 20 Hz से कम की तरंगे उत्पन्न करते हैं। इसी प्रकार श्रव्य आवृति की उच्चतम सीमा अर्थात 20,000 से अधिक Hz की तरंगे भी सुनाई नहीं पड़ती। 20,000 से अधिक आवृत्ति की तरंगों को पराश्रव्य कहा जाता है।

ध्वनि का परावर्तन

जब हम किसी गहरे कुएं के मुंह पर नीचे की ओर आवाज देते हैं तब कुछ समय के बाद हमें वही आवाज सुनाई पड़ती है। हमें ऐसा लगता है, मानो कुएं के भीतर से कोई हमारी बातें दोहरा रहा हो; इसे प्रतिध्वनि कहते हैं।

ऐसा अनुभव किसी अवरोध, जो दो माध्यमों का अंतरापृष्ठ है, से टकराकर ध्वनि के लौटने की क्रिया, अर्थात ध्वनि के परावर्तन के कारण होता है। ध्वनि का परावर्तन उन्हीं नियमों के अनुसार होता है जो प्रकाश के परावर्तन के नियम है।

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