मानव श्वसन तंत्र की जानकारी | संरचना, चित्र और कार्य

इस पेज पर आप श्वसन तंत्र से संबंधित समस्त जानकारी पढ़ेंगे और समझेंगे।

श्वसन तंत्र

मनुष्य या स्तनियों में गैसीय आदान प्रदान एक विकसित तंत्र के द्वारा होता है जिसे श्वसन तंत्र कहते है।

यह तंत्र कई अंगो का बना होता है लेकिन इसका सबसे प्रमुख अंग, जहाँ पर गैसीय आदान-प्रदान होता है, फेफड़ा या फुफ्फुस है। इसी कारण इसे फुफ्फुसीय गैसीय आदान प्रदान भी कहते है।

मनुष्य के गैसीय आदान प्रदान में भाग लेने वाले अंगों को दो समूह में बाँटा गया है -

(A) संवाहक अंग (Conducting organs) या श्वसन नलिकाएँ (Respiratory tracts) 

(B) फेफड़े (Lungs) - प्रमुख शवसनांग

Manav swasan tantra

(A) संवाहक अंग या श्वसन नलिकाएँ

इस समूह के अंतगर्त उन सभी अंगों को सम्मिलित किया गया है जो की वातावरण की वायु को फेफड़ो तक पहुंचाने का कार्य करते है।

संवाहक अंग निम्न भागों या अंगों से मिलकर बना होता है -

(1) नासिका छिद्र (2) नसामार्ग (3) आंतरिक नासा (4) ग्रसनी (5) श्वासनाल (6) ब्रोंकाई व ब्रोंकिओल्स 

(1) नासिका छिद्र - यह नासामार्ग का बाहरी छिद्र होता है ये मुँह के ठीक ऊपर स्थित होते है 

मनुष्य एवं स्तनियों में दो नासाछिद्र पाये जाते है जो की एक सेप्टम द्वारा अलग रहते है।

(2) नासामार्ग - यह श्वसन तंत्र का प्रथम भाग होता है नासिका मार्ग मुखगुहा की छत पर दो नलिकाओं के रूप में होता है। दोनों नासाछिद्रों के बीच में एक पट पाया जाता है।

नासाछिद्र एक छोटी सी गुहा में खुलते हैं जिसे नासागुहा या नासावेश्म कहते है। श्वसन के श्वासोच्छ्वास में ली जाने वाली वायु नासाछिद्रों से नासागुहा में ही आती है।

नासाछिद्रों तथा नासागुहा की आंतरिक सतह पर श्लेष्म झिल्ली का आवरण एक रोमाभि उपकला ऊतक पाया जाता है।

म्यूकस झिल्ली में म्यूकस ग्रंथिया पायी जाती है जिनसे स्त्रावित होने वाले श्लेष्मा में वायु के साथ आये धूल के कण तथा सूक्ष्म जीव चिपक जाते है फलतः ये फेफड़े में नहीं पहुंच पाते। रोमाभि उपकला ऊतक के सीलिया या तंतु अंदर ली गयी वायु की विपरीत दिशा में कम्पन करते रहते है जिससे ये भी धूल और सूक्ष्म जीवों को अंदर जाने से रोकते है।

जब वायु नासाछिद्रों से नासागुहा में जाती तो नासागुहा की त्वचा के सम्पर्क में आने के कारण यह नम तथा शरीर तापमान के बराबर गर्म हो जाती है नासागुहा ग्रसनी में खुलती है।

प्र्तेक नासावेश्म में तीन भाग होते है -

  • वेस्टीबुलर भाग - यह बाह्य नासा के ठीक पीछे वाला भाग होता है जिसमे त्वचा उपस्थित होती है।

इस भाग में रोम एवं तेल ग्रंथियाँ पाई जाती है ये रोम एवं तेल ग्रंथियाँ एक फ़िल्टर की भाँति कार्य करके बड़े- बड़े धूल के कणों को अंदर जाने से रोकते है।

  • श्वसन भाग - यह नासामार्ग का मध्य भाग होता है जिसमे श्लेष्म ग्रंथियाँ बहुत अधिक संख्या में पाई जाती है तथा इसके ऊपर रोमाभी आभासी स्तरित स्तंभाकार उपकला ऊतक का आवरण पाया जाता है। रक्त वाहिनियों की अधिक संख्या के कांड यह भाग गुलाबी अथवा लाल रंग का होता है इस भाग में दो प्रकार की ग्रंथि कोशिकाएँ पाई जाती हैं -

(a) श्लेष्म कोशिकाएँ - जो की एक श्लेष्मिक पदार्थ स्त्रावित करती हैं।

(b) सीरम कोशिकाएँ - जो की एक जलयुक्त द्रव स्त्रावित करती है। श्वसन क्षेत्र के बाहरी पाशर्व भाग से तीन अस्थिमय उभार निकलते है जिन्हे नासिका कांकी कहते है।

स्थिति के आधार परिणी क्रमशः सुपीरियर मध्य अन्तः नासिका कांकी कहते है

  • ओल्फैक्टरी भाग - यह भाग नासिका वेश्म एवं सुपीरियर कांकी के ऊपरी भाग तक सीमित होता है।

यह पीले रंग का दिखाई देता है तथा इसके ऊपरी ओल्फैक्टरी उपकला ऊतक का आवरण होता है ओल्फैक्टरी उपकला ऊतक से ली गई वायु के गंध का बोध कराती है।

जब वायु दुर्गन्ध युक्त होती है तो वायु को अंदर करना बंद कर दिया जाता है।

(3) ग्रसनी - यह श्वसनली का वह भाग होता है जहाँ पर पाचन संस्थान एवं वायु मार्ग एक दूसरे को क्रॉस करते है।

श्वसनली का ऊपरी सिरा एक छोटे से छिद्र के द्वारा ग्रसनी से जुड़ा होता है इस छिद्र को ग्लॉटिस कहते है यह छिद्र उपास्थि के एक छिद्र द्वारा ढँका रहता है, जिसे इपीग्लॉटिस कहते है।

भोजन के निगलते समय इपीग्लॉटिस, ग्लॉटिस को बंद कर देता है जिससे भोजन श्वसन तंत्र में नहीं जाने पता। अन्य समय में ग्लॉटिस खुला रहता है और श्वसन होता रहता है।

(4) कंठ - श्वसनली का अगला सिरा एक बक्से के समान रचना बनाता है जिसे कंठ या स्वर कोष कहते है।

यही ग्लॉटिस द्वारा ग्रसनी में खुलती है कण्ठ के अंदर की गुहा को कण्ठ कोष कहते है कण्ठ कोष चौथी से छठवीं ग्रीवा कशेरुकाओं के सीध में स्थित होता है और गर्दन की प्रतिपृष्ठ शत पर उभार के रूप में दिखायी देता है। चार उपास्थिमय प्लेटें कण्ठ की दीवार को सहारा देती है।

  • थायरॉइड उपास्थि

  • एरिटिनॉइड उपास्थि

  • क्रिकॉइड उपास्थि 

(5) श्वसनाल या वायुनलिका - कण्ठ के ठीक नीचे श्वसनाल स्थित होती है। यह फेफड़ो एवं नासा- ग्रसनी को आपस में जोड़ने का कार्य करती है।

नासागुहा से श्वसन में ली गयी वायु ग्रसनी से होते हुए एक नली में जाती है जिसे श्वसनली या वायु नाली कहते है। यह लगभग 12 सेमी लम्बी तथा गर्दन की पूरी लम्बाई से स्थित होती है।

इसकी दीवार पतली तथा लचीनी होती है और इसमें 'C' के आकार के 16 -20 उपास्थिमय अधूरे छल्ले पाये जाते है जिनका अधूरा भाग पृष्ठतल पर स्थित होता है।

ये छल्ले श्वसनली की दीवार को सीधी रखते है और वायु के निकल जाने पर भी श्वसनली को पिचकने नहीं देते, किन्तु इसके उपास्थि के बने होने के कारण हवा भरने पर श्वसनली थोड़ी फूल सकती है।

श्वसनली की गुहा को नम तथा लसदार बनाये रखता है फलतः आने वाली वायु में जो सूक्ष्म जीव को रोकने में मदद करते है श्वसनली की बाहरी सतह पर संयोजी ऊतक की बनी एक पतली झिल्ली पायी जाती है। 

(6) ब्रोन्काई एवं ब्रोंकिओल - ट्रैंकियो या श्वसनली वक्षीय गुहा में जाकर दो भागों में बंट जाती है, इन शाखाओं को ही ब्रोन्काई कहते है।

प्रत्येक ब्रोन्कस अपने-अपने तरफ के फेफड़े को जाती है और फेफड़े में जाकर कई शाखाओ में बँट जाता है जिन्हे ब्रोंकिओल कहते है।

प्रत्येक ब्रोंकिओल पुनः 2-11 शाखाओ में बंट जाता है जिन्हे कुपिका वाहिनियाँ कहते है।

प्रत्येक कूपिका वाहिनु का अंतिम सिरा फूलकर छोटे कोषों में समाप्त हो जाता है इन कोषों को कूपिका कोष कहते है। प्रत्येक कूपिका कोष में अनेक छोटे-छोटे कोष पाये जाते हैं, जिन्हे कूपिकाएँ या वायु कोष्ठ कहते है।

इनकी दीवार फुफ्फुसीय ऊतकों की बनी होती है कुपिकाओं के कारण ही फेफड़ा स्पॉन्जी होता है निकटवर्ती कूपिकाओं के बीच में संयोजी ऊतक भी पाया जाता है जो गैसीय आदान प्रदान में भाग लेते है कूपिकाओ का कुल क्षेत्रफल 100m2 तक होता है।

ब्रोन्काई की दीवार की संरचना श्वसनली के ही समान होती है। बायें ब्रोंकस की तुलना में दाहिना छोटा तथा चौड़ा होता है।

(B) फेफड़ा - प्रमुख श्वसनांग

फेफड़े एक जोड़ी शंकु के समान रचनाएँ हैं, जो ह्रदय के दोनों तरफ एक-एक की संख्या में वक्षीय गुहा के अधिकांश भाग में स्थित होते है।

इनके चारों तरफ की गुहा को फुफ्फुसीय गुहा कहते है। फेफड़े रचनात्मक दृष्टि से स्पॉन्जी होते है तथा श्वसनली द्वारा ग्रसनी से जुड़े होते है।

रचनात्मक दृष्टि से ये ब्रोंकिओल कुपिका वाहिकाओं, करोड़ो वायु कोषों या कूलिकाओं और रुधिर वाहिकाओं तथा केशिकाओं के जाल के बनाए होते है। 

प्रत्येक कूपिका लगभग 0.5μ होता है। पतली लचीनी और इसमें पल्मोनरी धमनी तथा शिरा की केशिकाएँ जाल के रूप में फैली होती है इनकी दीवार हमेशा नम बनी रहती है और इससे होते हुए गैसीय आदान प्रदान केशिकाओं तथा वायुकोषों की गुहा के बीच होता रहता है

मनुष्य के दोनों फेफड़ो को मिलाकर लगभग 30 करोड़ एल्विओलाई पायी जाती है जिनकी सतह का क्षेत्रफल लगभग 90 वर्ग मीटर होता है हमारा दायाँ फेफड़ा थोड़ा लम्बा और चौड़ा तथा तीन पलिया, दायीं उर्ध्वारती पालि मध्य पालि एवं दायीं निम्न पालि का बना होता है।

वायु कोषों के अधिक संख्या में होने के कारण मनुष्य के गैसीय आदान प्रदान की सतह शरीर की सम्पूर्ण बाह्य सतह की लगभग सौ गुनी हो जाती है। प्रत्येक फेफड़े चारो तरफ एक पतला आवरण पाया जाता है जिसे विसरल प्लूरा कहते है।

इसी प्रकार प्लूरल गुहा के चारो तरफ भी एक आवरण पाया जाता है जिसे पैराइटल प्लूरा कहते है, इन्ही दोनों आवरणों के बीच की गुहा ही प्लूरल गुहा या फुफ्फुसीय गुहा कहलाती है।

इस गुहा में प्लूरल द्रव नामक एक द्रव भरा होता है जो (a) फेफड़ो को रगड़ से बचाता है। (b) इस द्रव के कारण ही श्वासोच्छवास के दौरान फेफड़ा स्वतंत्र रूप से गति कर सकता है। (c) फेफड़े के बाह्य आवरण के अंदर संयोजी ऊतक भरण ऊतक के रूप पाया जाता है और इसी भरण ऊतक के ही बीच-बीच में फेफड़े की सारी रचनाएँ अर्थात ब्रोंकिओल, कूपिका एवं रुधिर वाहिकाएँ व केशिकाएँ सधी रहती है।

यह थी श्वसन से संबंधित जानकारी आशा है आपको पसंद आई होगी।

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