बलिदान न सिंह का होते सुना,
बकरे बलि बेदी पर लाए गये।
विषधारी को दूध पिलाया गया,
केंचुए कटिया में फंसाए गये।
न काटे टेढ़े पादप गये,
सीधों पर आरे चलाए गये।
बलवान का बाल न बांका भया
बलहीन सदा तड़पाये गये।
उत्तर भारत के पेरियार के रूप में प्रसिद्ध ललई सिंह यादव का जन्म 1 सितंबर 1921 को उत्तर प्रदेश के कानपुर देहात जिले के कठारा ग्राम में एक किसान परिवार में हुआ था।
इनके पिता चौधरी गुज्जू सिंह यादव , माता श्रीमती लीला देवी थी । सन् 1928 में हिंदी एवं उर्दू भाषा के साथ मिडिल क्लास की परीक्षा इन्होंने उत्तीर्ण की। इसके बाद अंग्रेजी शासन में 1929 से 31 तक फॉरेस्ट गार्ड की नौकरी की।
तत्पश्चात 1933 में सशस्त्र पुलिस बल कंपनी मुरैना (मध्य प्रदेश ) में कांस्टेबल के पद पर कार्य किया । 29 मार्च 1947 को ग्वालियर स्टेट की स्वतंत्रता के लिए इन्होंने संघर्ष किया और अपने कई साथियों के साथ इन्हें राज बंदी बना लिया गया।
6 नवंबर 1947 को ललई सिंह यादव को इनके इस कृत्य के लिए अंग्रेज सरकार ने 5 वर्ष सश्रम कारावास तथा ₹5 का अर्थदंड लगाया , परंतु जल्द ही 12 जनवरी 1948 को इन्हें रिहा कर दिया गया।
पेरियार ललई सिंह यादव को साहित्य से बड़ा लगाव था अपनी युवावस्था में इन्होंने श्रुति ,स्मृति, पुराण तथा रामायण का अध्ययन कर लिया था और इन पुस्तकों का अध्ययन के आधार पर इन्होंने यह माना कि भारतीय समाज में विषमता का मूल कारण यह धार्मिक पुस्तकें ही हैं।
उन दिनों दक्षिण भारत के प्रसिद्ध क्रांतिकारी पेरियार ई.ह्वी.रामास्वामी नयकर अपने विचारों को सम्पूर्ण भारत में फैलाने के उद्देश्य से उत्तर भारत के दौरे पर थे इस दौरान ललई सिंह यादव को पेरियार रामास्वामी नयकर से मिलने का मौका मिला और वह ललई के विचारों से बहुत प्रभावित हुए । रामास्वामी नयकर ने 1 जुलाई 1968 को अपनी पुस्तक " रामायण : अ ट्रू रीडिंग " का हिंदी में अनुवाद करने की अनुमति , ललई सिंह यादव को प्रदान की जिसके परिणाम स्वरूप 1 जुलाई 1969 तक इन्होंने इस पुस्तक का हिंदी में अनुवाद किया जिसका शीर्षक "सच्ची रामायण" था।
सच्ची रामायण जब उत्तर भारत में प्रकाशित हुई तो इसके वजह से पूरे उत्तर भारत में खलबली मच गई और हिंदू धर्म के समर्थकों ने इस किताब को हिंदू धर्म विरोधी और हिंदुओं का अपमान करने वाली पुस्तक बतलाया जिसके परिणाम स्वरूप उत्तर प्रदेश सरकार ने 8 दिसंबर 1969 को इस पुस्तक को जब्त करने का आदेश दिया । जिसके खिलाफ ललई सिंह यादव ने कोर्ट में केस दर्ज किया और इस लड़ाई को कोर्ट से जीत लिया , परिणाम स्वरूप न्यायालय ने आदेश दिया कि जब्ती का आदेश निरस्त किया जाए , जब्त की गई सभी किताबें उन्हें लौटाई जाए तथा सरकार के द्वारा ₹300 का मुआवजा भी उन्हें दिया जाए । इसके बाद तो मानो ललई सिंह यादव का अदालत से एक गहरा नाता ही जुड़ गया।
उनके द्वारा लिखी गई प्रमुख पुस्तक "सम्मान के लिए धर्म परिवर्तन करें। " जिसमें उन्होंने डॉक्टर बी.आर.अंबेडकर के विचारों के बारे में लिखा था , पर भी केस दर्ज हुआ और मई 1971 में कोर्ट के फैसले ने ललई सिंह यादव का पक्ष लिया और इन्हें सही ठहराया । ललई द्वारा प्रकाशित अगली पुस्तक " आर्यों का नैतिक पोल प्रकाश " जो की 1973 में प्रकाशित हुई थी, भी विवादों के घेरे में आ गई और यह लड़ाई कोर्ट में आजीवन चलती रही।
इसके अलावा ललई सिंह यादव ने 'सस्ता प्रेस ' नामक प्रिंटिंग प्रेस की स्थापना की और अंगुलिमाल, शंबूक वध, संत माया बलिदान, एकलव्य, नागयज्ञ जैसे प्रमुख नाटकों की रचना की जो पुरजोर तरीके से हिंदू धर्म में व्याप्त कुरुतियों के विरुद्ध लिखी गई थी और उनका ना केवल विरोध कर रही थी बल्कि लोगों के अंदर एक चेतना का सृजन भी करती रही हैं।
यद्यपि ललई सिंह यादव का जन्म उत्तर प्रदेश के एक पिछड़ी यादव जाति में हुआ था परंतु उनकी सोच सदैव समतामूलक समाज की स्थापना करने वाली रही । उन्होंने अपने जीवन में अपने नाम के साथ कभी भी अपनी जाति नहीं लगाई परंतु उनके समर्थकों ने हमेशा उनकी सोच के विपरीत इस जाति को उनके नाम से जोड़े रखा।
हम भी इससे अछूते नहीं रह पाये । उत्तर भारत के पेरियार ललई सिंह यादव का विवाह कम उम्र में हो गया था
बाद में युवावस्था में ही उनकी पत्नी का निधन हो गया परंतु उन्होंने क्रांति के लिए दूसरी शादी करने से मना कर दिया क्योंकि उनका मानना था कि पहली शादी तो अनभिज्ञता में हो गई परंतु वे नहीं चाहते हैं कि दूसरी शादी उसके क्रांति के मार्ग में बाधक बने। जब पहली बार उनके द्वारा लिखी गई पुस्तक "सच्ची रामायण " पर मुकदमा हुआ और सरकार के द्वारा जब्ती का आदेश दिया गया तभी उन्होंने फैसला कर लिया था कि अब उन्हें हिंदू धर्म में नहीं रहना है । अंततः 1969 में ललई सिंह यादव ने हिंदू धर्म त्याग करके बौद्ध धर्म ग्रहण कर लिया।
ललई सिंह यादव का और उनकी लेखनी का प्रारंभ से ही विवादों से चोली-दामन का साथ रहा है।
अंग्रेजी हुकूमत के दौरान जब 1946 में उन्होंने अपनी प्रसिद्ध पुस्तक ' सिपाही की तबाही 'लिखी थी तब अंग्रेज सरकार ने इनकी पुस्तकों को ना केवल प्रतिबंधित किया बल्कि पुस्तक की सभी प्रतियों को जब्त कर लिया गया था।
यदि यह पुस्तक उस समय प्रकाशित हुई होती तो निश्चित रूप से इस पुस्तक का महत्व " ज्योतिबा फूले " की प्रसिद्ध पुस्तक "किसान का कोड़ा " के बराबर रहा होता । आजीवन अपने कृत्यों , अपनी कृतियों और अपने कर्तव्य के माध्यम से मानवता की सेवा करते हुए । बहुजनों को मुक्ति का पथ दिखा कर , अंततः 7 फरवरी 1993 को उत्तर भारत के पेरियार ललई सिंह यादव का निधन हो गया । यह घटना निश्चित रूप से बहुजन समाज के लिए अपूर्णनीय क्षति के रूप में थी। इन्हीं शब्दों के साथ हम उनके जन्म जयंती 1 सितंबर को याद करते हुए उन्हें अपनी सच्ची श्रद्धांजलि अर्पित करते हैं
धन्यवाद 🙏
You must be logged in to post a comment.