रहस्यवाद एवं प्रगतिवाद की प्रमुख प्रवृत्तियाँ एवं रचनाएँ

आचर्य रामचंद्र शुक्ल के शब्दों में चिन्तन के क्षेत्र में जो अद्वैतवाद है वही भावना के क्षेत्र में रहसयवाद है।

बाबू गुलाबराय में प्रकृति में मानवीय भावो का आरोप कर जड़ चेतन के एककीकरण की प्रवृत्ति के लाक्षणिक प्रयोगों को रहस्यवाद कहा है।

मुकुटधर पाण्डेय के अनुसार, प्रकृति में सूक्ष्म सत्ता का दर्शन की रहसयवाद है। या वाद जिसका आधार अज्ञात है। हिंदी कविता में रहस्यवाद का काल निर्धारण करना कठिन है क्योकि रहस्यवाद सृष्टि के आरम्भ से ही कवियों को प्रिय रहा है।

सर्वप्रथम रहस्यवाद कवियों में जयशंकर प्रसाद सर्वप्रथम है। तोदोप्रान्त निराला जी ने "तुम तुंग हिमालय शृंग मई चंचलगति सुर-सरिता " कहकर अलौकिक के साथ अपना स्पष्ट संबंध जोड़ लिया।  पन्त जी भी प्रारम्भ में रह्स्य्वादी रहे रहस्यवाद की साधना में अकेली महादेवी वर्मा विरह के गीत ही गाती रहीं। 

रहस्यवाद की प्रमुख प्रवृत्तियाँ

(1) अद्वैतवादी मान्यता, (2) दाम्पत्य-प्रेम पद्द्ति, (3)प्रेम में स्वच्छता एवं पवित्रता, (4) दैन्य एवं आत्मा सम्पर्ण की भावना, (5) प्रतीकात्मकता, (6) मुक्तक गीति शैली।

रहस्यवाद के प्रमुख कवि

कबीर, प्रसाद, पन्त, निराला, महादेवी सभी ने इस शैली को अपनाया है।  ये सभी रहस्यवादी है। रामकुमार वर्मा आदि कवि अंशतया रहस्यवाद के कुछ सोपानो पर चढ़ सके इसलिए उनकी रचनाओं में कुछ स्थानों पर रहस्यवाद में कुछ स्थानों पर रहस्यवाद की झलक मिलती है।

प्रगतिवाद

राजनीति के क्षेत्र में जो साम्यवाद है वह काव्य के क्षेत्र में प्रगतिवाद है। "

प्रगतिवाद काव्य की संज्ञा उस कविता को प्रदान की गई जो की छायावाद के समापन काल में सन 1936 के आस पास समाजिक चेतना को लेकर अग्रसर हुआ प्रगतिवाद कविता में राजनैतिक, आर्थिक और सामाजिक शोषण से मुक्ति का स्वर प्रमुख है इस कविता पर माक्सर्वाद का प्रभाव है। रूस के नए संविधान और सं 1905 में लखनऊ में भारतीय प्रगतिशील लेखक संघ की प्रेमचंन्द की अध्यक्षता में हुई सभा इसके विकास-क्रम के महत्वपूर्ण सोपान है।

प्रगति का शब्द का अर्थ है -चलना, आगे-बढ़ना। अर्थत यह वह वाद है जो आगे बढ़ने में विशवास रखता है।  प्रगतिवाद में साम्यवादी दृष्टिकोण को साहित्यिक विचारधारा के रूप में स्वीकार किया गया है।

प्रगतिवाद की प्रमुख प्रवृत्तियाँ 

दर्शन  द्वन्द्वात्मक भौतिक विकासवाद माना गया है, राजनीति में जो साम्यवाद है, वही साहित्य में प्रगतिवाद है।"

(1) धर्म, ईश्वर एवं परलोक का विरोध है। समाज में वर्ग-संघर्ष को समाप्त करने के लिए भाग्यवादिता की मान्यता को नष्ट करना होगा, क्योकि शोषक वर्ग केवल भाग्य के बल पर ही शोषण करता है।

(2) पूँजीपति वर्ग के प्रति घृणा का प्रचार प्रगतिवादी कलाकारों ने किया है।

(3) शोषित वर्ग की दिन हीन दशा का यथार्थ चित्रण करके ही दोनों वर्गो का भेद स्पष्ट किया है।

(4) नारी के प्रति यथार्थवादी दृष्टिकोण अपनाया गया है। उसे रूपसी, नायिका या राज-वैभव में पलने वाली राजदुलारी नहीं, वरन मजदूरी करने वाली कृषक ललना के रूप में चित्रित किया है।

(5) सरल शैली को अपनाकर अपनी रचनाओं को जन-साधारण तक पहुँचाना ही इस प्रवृत्ति का उद्देश्य रहा है।

 

क्र. कवि रचनाएँ
1 नागार्जुन  'युगधारा' सतरंगे पंखो वाली, प्यासी पथराई आँखे'.
2 सुमित्रानंदन पंत  युगवाणी' ग्राम्या 
3 सूर्यकान्त त्रिपाठी 'निराला'  कुकुरमत्ता 
4 . केदारनाथ अग्रवाल  युग की गंगा, फूल नहीं रंग बोलते है, नींद के बादल 
5. शिवमंगल सिंह सुमन  हिल्लोल, जीवन के गान, प्रलय सृजन, विशवास बढ़ता ही गया।
6. त्रिलोचन  धरती, मिहि की बारात, मई उस जनपद का कवी हूँ। 
7.  रांगेय राघव  'अजेय खण्डहर, मेधावी, पांचाली, राह के दीपक। 
     

 

                                                                                                  

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